लोग इसे मस्ती और रंगों में डूबकर मनाते हैं लेकिन क्या आप जानते हैं कि होली असल में रंग और फूलों से नहीं, बल्कि राख से खेला जाती थी? यह मान्यता पौराणिक कथाओं से जुड़ी हुई है, जिसमें राख का बहुत महत्व है. पुरानी कथाओं के अनुसार, होली की शुरुआत राक्षसी राजा हिरण्यकश्यप और उनकी बहन होलिका से जुड़ी एक घटना से हुई थी.
पूर्णिया के इस गांव में खेली गई पहली होली:मान्यता है कि बिहार के पूर्णिया के बनमनखी प्रखंड अंतर्गत सिकलीगढ़ धरहरा में पहली होली खेली गई थी. अब यहां राजकीय समारोह के रूप में काफी धूमधाम से होलिका दहन समारोह मनाया जाता है. इस मौके पर भव्य आतिशबाजी के नजारों के बीच राक्षसी होलिका के बड़े पुतले को जलाया जाता है. इस बार जिसे देखने करीब 50000 से अधिक आए थे.
होलिका और भक्त प्रह्लाद की कहानी: पौराणिक मान्यताओं के अनुसार राक्षसी राजा हिरण्यकश्यप का अहंकार इतना बढ़ चुका था कि उसने अपने ही बेटे, भक्त प्रह्लाद को मारने की योजना बनाई थी. हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के पास एक विशेष चादर थी, जिस पर आग कोई असर नहीं होता था. इस चादर में लपेटकर होलिका ने प्रह्लाद को अग्नि में जलाने का प्रयास किया लेकिन प्रह्लाद बच गए और होलिका आग में जल गई. इस घटना के बाद भगवान विष्णु ने अपने चौथे नरसिंह अवतार में प्रकट होकर हिरण्यकश्यप का वध किया.
राख से खेली गई होली: वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश चंद्र ने बताया कि जब होलिका जलकर राख में बदल गई, तब लोग राख और कीचड़ से होली खेलने लगें. इसे बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना गया. जब भक्त प्रह्लाद अग्नि से सुरक्षित बाहर निकले थे, तो लोग खुशी व्यक्त करने के लिए राख और मिट्टी से होली खेलने लगे थे. इस प्रकार राख से होली खेलने की परंपरा शुरू हुई, जो अब तक कुछ स्थानों पर जारी है.
“जब होलिका भस्म हुई थी और भक्त प्रह्लाद जलती चिता से सकुशल वापस लौट आए थे, तो लोगों ने राख और मिट्टी लगाकर खुशियां मनाई थी. तभी से राख और मिट्टी से होली खेलने की शुरूआत हुई थी.”–अखिलेश चंद्र, वरिष्ठ पत्रकार
माणिक्य स्तंभ और भगवान विष्णु का नरसिंह अवतार: गुजरात के पोरबंदर में स्थित विशाल भारत मंदिर में भगवान नरसिंह के अवतार स्थल के बारे में उल्लेख किया गया है. यह स्थान सिकलीगढ़, धरहरा (पूर्णिया, बिहार) के बनमनखी में स्थित है. भागवत पुराण में भी माणिक्य स्तंभ का उल्लेख किया गया है, जहां भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार में प्रकट होकर प्रह्लाद की रक्षा की थी. यह स्तंभ आज भी एक प्रमुख आस्थाओं का केंद्र बना हुआ है.
यहां मौजूद है ऐतिहासिक अवशेष और शोध: माणिक्य स्तंभ के आसपास अब भी ऐतिहासिक अवशेषों की जांच की जा रही है. इस क्षेत्र में एक बड़ा घड़ा, रहस्यमयी कुआं और अन्य अवशेष मौजूद हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण हैं. फिलहाल पुरातत्व विभाग इन अवशेषों पर अध्ययन कर रहा है. इस परिसर में एक दिव्य कुआं भी है, जो कभी हिरण नदी से जुड़ा था. इन अवशेषों को देखकर यह स्पष्ट होता है कि इस स्थान का कापी बड़ा ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व है.
यहां है प्रसिद्ध माणिक्य स्तंभ: वहीं गीता प्रेस गोरखपुर के ‘कल्याण’ के 31वें वर्ष के तीर्थांक में उल्लेख है. भागवत पुराण (सप्तम स्कंध के अष्टम अध्याय) में भी माणिक्य स्तंभ स्थल का जिक्र है. उसमें कहा गया है कि इसी खंभे से भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा की थी. लोगों के लिए अपार आस्था का केंद्र बना यह स्तंभ आज भी यहां मौजूद है. जो लोगों के बीच माणिक्य स्तंभ नाम से प्रसिद्ध है. यह स्तंभ आज घटकर 100 एकड़ में ही सिमट गया है. यहां आज भी अहंकारी राजा हिरण्यकश्यप का ऐतिहासिक किला है, जो फिलहाल जर्जर हो चुका है.
“भगवान विष्णु ने भक्तों के कल्याण के लिए अपने अंश प्रह्लाद को असुरराज की पत्नी कयाधु के गर्भ में भेज दिया. जन्म से ही भक्त प्रह्लाद विष्णु के भक्त थे. जिस कारण उनके पिता हिरण्यकश्यप उन्हें अपना शत्रु समझने लगा. अपने पुत्र को खत्म करने के लिए हिरण्यकश्यप ने होलिका के साथ प्रहलाद को अग्नि में जलाने की योजना बनाई लेकिन होलिका अग्नि में जल गई और भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए खुद भगवान विष्णु अपने चौथा नरसिंह अवतार में प्रकट हुए और हिरण्यकश्यप का वध किया.”–अमोद कुमार झा, पंडित