चामराजनगर (कर्नाटक): दिवाली के बाद जब देशभर में दीपों की रौनक और मिठाइयों की मिठास रहती है, वहीं कर्नाटक के चामराजनगर जिले के गोमतेश्वर गांव में एक अनोखा नजारा देखने को मिलता है। यहां लोग एक-दूसरे पर गाय का गोबर फेंकते हैं।
सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन इस परंपरा के पीछे छिपा है आशीर्वाद, एकता और शुद्धि का संदेश।
क्या है ‘गोर हब्बा’ उत्सव?
‘गोर हब्बा’ का अर्थ है गाय के गोबर का उत्सव।
इस दिन ग्रामीण बीरप्पा मंदिर से पूजा-अर्चना करते हैं। मंदिर के सामने गाय के ताजा गोबर के ढेर लगाए जाते हैं।
इसके बाद ग्रामीण लगभग दो घंटे तक एक-दूसरे पर गोबर फेंकते हैं। बच्चे घर-घर जाकर दूध और घी इकट्ठा करते हैं, जिससे ग्राम देवता का विशेष स्नान (अभिषेक) किया जाता है।
कैसे मनाया जाता है यह उत्सव
‘गोबर की लड़ाई’ शुरू होने से पहले ग्रामीण बीरप्पा मंदिर की परिक्रमा करते हैं और जुलूस के साथ उत्सव की शुरुआत होती है।
पुरुष, महिलाएं और बच्चे खुशी-खुशी एक-दूसरे पर गोबर फेंकते हैं। दूर-दूर से पर्यटक इसे देखने आते हैं, जिससे उत्सव का माहौल और भी जीवंत बन जाता है।
‘चड़ीकोरा’ की अनोखी परंपरा
उत्सव से पहले एक व्यक्ति को ‘चड़ीकोरा’ का रूप दिया जाता है। यह पात्र पत्तों और घास से सजा, नकली मूंछों और माला से अलंकृत होता है। ‘चड़ीकोरा’ को गधे पर बैठाकर पूरे गांव में घुमाया जाता है, जो समाज में झूठ और पाखंड का प्रतीक है।
यह परंपरा समुदाय को याद दिलाती है कि सच्चाई और ईमानदारी ही समाज की असली ताकत है।
परंपरा की कहानी
स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार, इस त्योहार की शुरुआत सदियों पहले हुई थी। कहा जाता है कि एक संत कालेगौड़ा गांव में रहते थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके सामान को गड्ढे में फेंक दिया गया।
कुछ दिनों बाद वहां शिवलिंग प्रकट हुआ। एक दिन बैलगाड़ी का पहिया उस शिवलिंग पर चढ़ गया और उसमें से खून बहने लगा।
संत ने ग्रामीणों के सपने में आकर कहा —
“मेरी याद में हर साल दिवाली के बाद ‘गोर हब्बा’ मनाओ।”
आज भी उसी स्थान पर बीरप्पा मंदिर है और यह परंपरा जारी है।
समाज और संस्कृति का प्रतीक
‘गोर हब्बा’ केवल गोबर का त्योहार नहीं है, बल्कि यह सामुदायिक एकता, सांस्कृतिक पहचान और शुद्धि का प्रतीक है। ग्रामीणों के अनुसार, इस दिन गोबर से खेलना शुभता और समृद्धि का प्रतीक है।
“गंदगी के बीच भी आशीर्वाद छिपा है, बस दृष्टिकोण साफ होना चाहिए।”


